
खबरों के खिलाड़ी
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मप्र के चुनावों में अब चंद दिन शेष हैं। प्रदेश की राजनीति को लेकर हमने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में खबरों के खिलाड़ियों से चर्चा की। वरिष्ठ पत्रकार राकेश पाठक, आनंद पांडे, राजेश बादल और अजय बोकिल चर्चा में मौजूद रहे। आइए जानते हैं किसने क्या कहा-
मतदान में चंद दिन शेष हैं, हवा का रुख क्या कहता है?
अजय बोकिल- हम पहले तो महसूस कर रहे थे, कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस आसानी से जीत रही है। अब उसमें बदलाव आया है। भाजपा ने कमबैक किया है। इसका श्रेय शिवराज सिंह चौहान को जाता है। हालांकि ये नहीं कहा जा सकता कि भाजपा जीतने की स्थिति में आ गई है। मुकाबला टफ है। बीते दस दिन में बागी भी मुसीबत बनकर सामने आए हैं। दोनों ही पार्टियों ने 74 लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया है। ये सीटों का एक तिहाई होता है। अगर यहां इन बागियों ने वोट काटे तो समीकरण गड़बड़ा सकते हैं।
क्या पिछली बार की तरह परिणाम के बाद फिर गुणा-भाग की जरूरत पड़ेगी?
आनंद पांडे- मैं जमीनी स्थिति को भांप रहा हूं कि कांग्रेस की स्थिति जरूर गड़बड़ हुई है। मैं कहना चाहता हूं कि भाजपा चुनाव बहुत अच्छा चुनाव लड़ रही है पर जनता ने मन बना लिया है। कांग्रेस मुकाबले में आगे दिख रही है, लेकिन भाजपा के लिए एक फैक्टर काम कर सकता है। अगर महिलाओं का वोटिंग बहुत ज्यादा होती है मेरी बात गलत साबित हो सकती है। लाडली बहना योजना का असर तो है।
जमीन पर किन मुद्दों पर चुनाव हो रहा है?
राजेश बादल- मेरा अनुभव रहा है कि पहले प्रादेशिक और स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाता था, पर बीते आठ-दस वर्षों से देखा जा रहा है कि अब प्रदेश के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को लाया जा रहा है। स्थानीय-प्रादेशिक मुद्दों पर काम नहीं हुआ, जमीनी तौर पर उपलब्धियां नहीं हैं। डबल इंजिन सरकार का नुकसान भी देखने को मिलेगा। केंद्र की नाकामियों का असर दिखेगा। ये नाकामियां मैदान में देखने को मिलेंगी।
कहा जा रहा है कि सरकार 116 सीटें जीतने पर नहीं बनेगी, सरकार बनानी है तो 126 सीटें जीतना होंगी?
राकेश पाठक- सरकार तो 116 में बन जाएगी। लेकिन जो आशंका है कि 2020 दोहरा दिया जाएगा। फिर कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया खड़ा हो जाएगा। ये संभावनाएं निर्मूल हो गई हैं। मप्र में अब मोदी-शाह की हिम्मत नहीं है कि दलबदल करा सकें। कर्नाटक उदाहरण उनके सामने हैं। कांग्रेस का जहां तक सवाल है, वह भी बदल रही है। ये राहुल गांधी की कांग्रेस है। राहुल की यात्रा के बाद हिमाचल की जीत है, कर्नाटक की जीत उनके हिस्से आई है। भाजपा में तो तीन भाजपा की बात कही जा रही है। नाराज भाजपा, शिवराज भाजपा औऱ महाराज भाजपा। भाजपा में जितना अंतर विरोध है, कांग्रेस में उतना तो नहीं लग रहा। तो कांग्रेस 115 सीट भी ले आई तो भी सरकार बना लेगी। मप्र में भ्रष्टाचार भी बड़ा मुद्दा है।
भाजपा में चेहरे की बात उठ रही है, बड़े चेहरे उतारने का क्या फीडबैक रहा?
अजय बोकिल- भाजपा के पास सबसे बड़ा चेहरा शिवराज सिंह चौहान आज भी है। भाजपा चाहे उन्हें प्रोजेक्ट करे या न करे। 2018 में शिवराज ही चेहरा थे, पर सत्ता में नहीं आए थे। लेकिन ये मैसेज गया कि शिवराज के चेहरे से लोग ऊब चुके हैं, लोग नया चेहरा चाहते थे। लेकिन ये बात भी है कि शिवराज का विकल्प पार्टी के पास नहीं है। वे पर्दे के पीछे से चुनाव संचालन कर रहे हैं। वे इमोशनल कार्ड भी खेल रहे हैं।
आनंद पांडे- ये जो शिवराज का एपिसोड रहा, मेरा व्यक्तिगत मानना है कि पार्टी भ्रम में आ गई थी। पार्टी तय नहीं कर पाई करना क्या है। सुनी बातों पर गौर करें तो इनपुट बता रहा था शिवराज का चेहरा बदल देना चाहिए था। पर ये बात तो सही है कि शिवराज जैसा लोकप्रिय चेहरा भाजपा तो छोड़िए, कांग्रेस के पास भी नहीं है। यहीं से भ्रम बढ़ा कि पार्टि क्या करे, कार्यकर्ताओं को संदेश देना चाहते थे इसलिए कई चेहरे सामने लाए। हालांकि इसका नुकसान होता दिख रहा है।
राकेश पाठक- सब जानते हैं नरेंद्र मोदी मास्टर स्ट्रोक खेलने में माहिर हैं। चौंकाने वाले फैसले करते हैं। आप विश्वास कीजिए कि इन आठ बड़े चेहरे (सात सांसद और कैलाश विजयवर्गीय) को नहीं पता था कि विधानसभा चुनाव लड़ना है। दूसरा तकनीकी पक्ष है कि आप अपने चलते चुनाव में अपने चार बार के सीएम के सामने समानांतर आठ चेहरे ऐसे खड़े कर देते हैं, जो सीएम बनने का सपना देखते हैं। ऐसे लोगों को रेस में दौड़ा रहे हैं। अब जब 3 दिसंबर को रेस खत्म होगी, तो बताइए कि कौन दूसरे के मातहत मंत्री बनना पसंद करेगा। मुझे लगता है कि पार्टी भूल कर गई और गलत संदेश भी गया।
राजेश बादल- शिवराज के मामले में जरूर गड़बड़ हुई है। शिवराज सिंह को प्रधानमंत्री लंबे समय तक अपमानित करते रहे, मैं अंडर लाइन के साथ ये बात कह रहा हूं कि अपमानित करते रहे। आप संदेश देते रहे कि दूसरा कोई मुख्यमंत्री होगा। आप भरी सभा में शिवराज को अपमानित करते रहे। अगर आपको सीएम को नहीं बनाना था, तो अपमानित करने का हक नहीं था। पर जब आपको लगा कि पैरों तले जाजम खिसक रही है तो शिवराज पर फिर दांव लगाया। इसका असर ये रहा कि शिवराज अब उतना ही प्रचार कर रहे हैं जितने में उनकी इज्जत बची रहे, पार्टी की फिकर अब उन्हें हो, ऐसा लग नहीं रहा।
दिग्विजय सिंह की क्या भूमिका है?
राजेश बादल- कांग्रेस की बढ़त कम हई है, पर ये भाजपा की वजह से नहीं, कांग्रेस की वजह से ही है। दो बड़े शिखर नेता भरी सभा में इस तरह का संवाद करते हैं, उसका स्थानीय स्तर तक संदेश गलत जाता है। दिग्विजय का पहला कार्यकाल चमकीला था, लेकिन दूसरे कार्यकाल के बाद प्रदेश को जिस हालत में छोड़ा था, वो आज भी वैसी है। उन्होंने दूसरी लाइन लीडरशिप पंक्ति को खड़ा नहीं होने दिया। बहुत मामलों में बैर मोल ले लिया। उदाहण के लिए बोलें तो अगर ये संदेश आया कि कांग्रेस जीती तो सीएम दिग्विजय होंगे तो पार्टी 40 सीटों पर सिमट जाएगी।
आनंद पांडे- दिग्विजय सिंह के साथ सबसे बड़ी समस्या या सौगात ये है कि पब्लिक में उनकी स्वीकार्यता बहुत खराब है। राजेश भाई कह ही रहे हैं कि उनके चेहरे से पार्टी 40-50 सीटों पर आ जाएगी। लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच में उनकी स्वीकार्यता ज्यादा है। वो सालों से बहुत नीचे तक के कार्यकर्ताओं को नाम से पहचानते हैं। गले में हाथ डालकर बात करते हैं। रणनीतिक तरीके से तय हुआ था कि दिग्वियजय सिंह सामने नहीं आना चाहता। लेकिन दिग्विजय सिंह की अपनी ताकत है।
मप्र का चुनाव लोकसभा के चुनावों पर कितना असर डालेगा?
राकेश पाठक- हमने 2018-19 में देखते हैं तो तीन राज्यों में मप्र, छग, राजस्थान में कांग्रेस थी, पर तब के लोकसभा की तस्वीर अलग है। हालांकि तब मुद्दे अलग थे। पुलवामा के साए में चुनाव हुए हैं। अब अंतर है पीएम मोदी का जादू वैसा नहीं है। ये मैं नहीं संघ के लोग कहते हैं। 23-24 का भविष्य की बात करें तो इन तीन राज्यों के चुनाव ‘इंडिया’ के नेताओं का उतना प्रभाव नहीं है। तीनों राज्यों में कांग्रेस और भाजपा ही एक दूसरे का विकल्प हैं।
अजय बोकिल- कांग्रेस को बड़े नेताओं का प्रचार प्रसार करना फायदेकारी रहेगा, पर उतना नहीं मिलेगा। ये लोकसभा का चुनाव नहीं हैं। प्रियंका वैसे भी यूपी की राजनीति करती रही हैं, पर मप्र में उतना असर नहीं है। राहुल का कद बढ़ सकता है। खरगे जी का भी इतना असर यहां नहीं देखा जा रहा। 2019-2024 की बात पर मैं कहूंगा कि 2019 का चुनाव भी मोदी के लिए आसान नहीं था, पर पुलवामा ने मामला बदल दिया था। इसलिए ऐनमौके के घटनाक्रम असर डालते हैं। उनके बारे में कुछ नहीं कह सकते।
ये चुनाव सिंधिया के भविष्य पर भी असर डालेगा?
आनंद पांडे- मुझे लगता है कि ये उनकी राजनीतिक मजबूरी है। उसे जनता के बीच जाकर बताना कि हम आपके हैं। ये बदलाव लंबे समय से देखा जा रहा है। भाजपा में सिंधियाजी का उज्जवल भविष्य दिखता नहीं है। जिस डायरेक्शन में भाजपा चल रही है, उससे तो यही लगता है। आज कहूं तो सिंधिया सीएम बनेंगे, ऐसा कतई नहीं लगता।
अजय बोकिल- सिंधिया की उपयोगिता देखी जाएगी। ये चुनाव उनकी आगे की रणनीति तय करेगा। अगर उनके इलाके में ही सीटें नहीं जीत पाते तो उनकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगेगा ही। अगर साबित करते हैं तो फायदा भी मिलेगा।
राकेश पाठक- मुझे लगता है कि सिंधिया की जितनी उपयोगिता होना थी, उतनी हो गई। उनकी असली परीक्षा दलबदल केबाद हुए उपचुनाव में। वे अपने इलाके की सीटें नहीं जीत पाई। सिंधिया अगर सीएम बनने की आस देख रहे हैं तो सोचना होगा कि वे किस दशा में पहुंच गए हैं।